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आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी !!!
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
हे भारत ! आर्त अर्थात् पीड़ित - फलस्वरूप दु:खी, जिज्ञासु अर्थात् भगवान् का तत्त्व जानने की इच्छा वाला, अर्थार्थी यानी धन की कामना वाला और ज्ञानी अर्थात् विष्णु के तत्त्व को जानने वाला, हे अर्जुन ! ये चार प्रकार के पुण्यकर्मकारी मनुष्य मेरा भजन-सेवन करते हैं।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
उन चार प्रकार के भक्तों में जो ज्ञानी है अर्थात यथार्थ तत्त्व को जानने वाला है वह तत्त्ववेत्ता होने के कारण सदा मुझमें स्थित है और उसकी दृष्टि में अन्य किसी भजने योग्य वस्तु का अस्तित्व न रहने के कारण वह केवल एक मुझ परमात्मा में ही अनन्य भक्ति वाला है। इसलिए वह अनन्य प्रेमी (ज्ञानी भक्त) श्रेष्ठ माना जाता है। अन्य तीनों की अपेक्षा अधिक - उच्च कोटि का समझा जाता है। क्योंकि मैं ज्ञानी का आत्मा हूँ इसलिए उसको अत्यंत प्रिय हूँ। संसार में यह प्रसिद्ध ही है कि आत्मा ही प्रिय होता है। इसलिए ज्ञानी का आत्मा होने के कारण भगवान् वासुदेव उसे अत्यंत प्रिय होते हैं। यह अभिप्राय है। तथा वह ज्ञानी भी मुझ वासुदेव का आत्मा ही है, अतः वह मेरा अत्यंत प्रिय है।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - १६ और १७)
आर्त कौन है ? वह, जिससे भगवान् के बिना एक क्षण भी रहा न जाए। जैसे गोपियाँ भगवद् वियोग में आर्त हो जाती थीं। आर्त लोग दुःखी होकर द्रौपदी की तरह रोते हैं। कुन्ती तो आर्त होने का वरदान ही मांगती हैं। मीरा भी आर्त की श्रेणी में है। आर्त वह हुआ जिसे जगत् से वैराग्य हो गया।
जिज्ञासु कौन है ? आर्त और अर्थार्थी के बीच में - गोपियाँ जो वन-वन में ढूंढती फिरीं कि हे वृक्ष बताओ, श्री कृष्ण कहाँ हैं ? हे पृथ्वी बताओ, श्री कृष्ण कहाँ हैं ? जिज्ञासु वह हुआ जिसने गुरु के पास जाकर जिज्ञासा की इस प्रश्न के साथ कि बताओ भगवान् कहाँ है ? क्या तुमने भगवान् को देखा है ? मुझे भगवान् को दिखा सकते हो ? स्वामी विवेकानंद जिज्ञासु हैं और श्री रामकृष्ण परमहंस गुरु हैं।
अर्थार्थी कौन है ? गोपियाँ - जिन्हें भगवान् श्री कृष्ण का दर्शन चाहिए। वे किसी से पूछती नहीं हैं कि भगवान् श्री कृष्ण कहाँ हैं ? वे तो दर्शन की अभिलाषी हैं। अर्थार्थी वह हुआ जिसके ह्रदय में यह भाव हुआ कि परमात्मा का साक्षात्कार होना चाहिए। अर्थार्थी ध्रुव की तरह कहते हैं कि हे प्रभु, मुझे दर्शन दे दो, मुझे ज्ञान दे दो। उद्धव ज्ञान माँगते हैं। यहाँ आप सब के मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि अर्थ का अर्थ तो धन है ?! बिल्कुल धन है किन्तु, ज्ञान धन है। वह धन नहीं जिससे / जिसके लिए जड़ पदार्थ / वस्तुएँ खरीदी / बेची जाती हैं। कैसे ? अर्थार्थी सबसे पहले स्वामिनी लक्ष्मी द्वारा प्रदत्त धन को ठुकराता है। गौतम बुद्ध ने पहले राज-पाट त्यागा और ज्ञान की खोज में निकल गए। गुरु नानक देव ने तेरा, तेरा--------------, तेरा कह कर सब दे डाला और ज्ञान मार्ग में चल पड़े। ध्रुव अपने पिता का महल त्याग कर भगवान् के दर्शन के लिए निकल गए। गौतम बुद्ध, गुरु नानक देव, ध्रुव सभी अर्थार्थी हैं।
ज्ञानी कौन है ? ज्ञानी के सम्बन्ध में लोगों (अज्ञानियों) को भ्रम है कि ज्ञानी भक्त नहीं होता है। आदिशंकराचार्य के सम्बन्ध में भी स्वयं को कृष्ण का सबसे बड़ा भक्त घोषित करने वाले सम्प्रदाय द्वारा ऐसी ही भ्रांतियाँ फैलाई गई हैं। वास्तव में ज्ञानी को वियोग नहीं है क्योंकि परमात्मा का ज्ञान होते ही वियोग की संभावना ही मिट जाती है। जब तक ज्ञान नहीं होगा तब तक उल्टे भक्ति ही दिशा बदलती रहेगी। इसी से ज्ञानी की भक्ति विशिष्ट है। भगवान् कहते हैं कि मैं ज्ञानी का व्यवधान रहित प्रिय हूँ। मेरे और ज्ञानी के बीच में कोई दूसरी चीज नहीं है। फूल नहीं, माला नहीं, हड्डी, माँस, मज्जा, रक्त भी नहीं है। न भूख है और न प्यास है। अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोष भी नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश कुछ भी भगवान् और ज्ञानी के बीच में नहीं है यानी पंचकोष और पंचभूत भी भगवान् और ज्ञानी के बीच नहीं है। प्रहल्लाद ज्ञानी हैं !
भगवान् और ज्ञानी की प्रियता पीड़ा, जिज्ञासा और अर्थ व्यवधान रहित है। इसलिए वह अनन्य (न अन्य) प्रेमी (ज्ञानी भक्त) अन्य तीनों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। भगवान् कहते हैं कि मैं ज्ञानी का आत्मा हूँ तथा वह ज्ञानी भी मुझ वासुदेव का आत्मा ही है। अतः वह मेरा अत्यंत प्रिय है !!
भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं कि यही चार प्रकार के पुण्यकर्मकारी मनुष्य मेरा भजन - सेवन करते हैं।
क्या आपने ऐसे किसी एक का भी दर्शन किया है ?!
जय श्री कृष्ण !!
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥
हे भारत ! आर्त अर्थात् पीड़ित - फलस्वरूप दु:खी, जिज्ञासु अर्थात् भगवान् का तत्त्व जानने की इच्छा वाला, अर्थार्थी यानी धन की कामना वाला और ज्ञानी अर्थात् विष्णु के तत्त्व को जानने वाला, हे अर्जुन ! ये चार प्रकार के पुण्यकर्मकारी मनुष्य मेरा भजन-सेवन करते हैं।
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
उन चार प्रकार के भक्तों में जो ज्ञानी है अर्थात यथार्थ तत्त्व को जानने वाला है वह तत्त्ववेत्ता होने के कारण सदा मुझमें स्थित है और उसकी दृष्टि में अन्य किसी भजने योग्य वस्तु का अस्तित्व न रहने के कारण वह केवल एक मुझ परमात्मा में ही अनन्य भक्ति वाला है। इसलिए वह अनन्य प्रेमी (ज्ञानी भक्त) श्रेष्ठ माना जाता है। अन्य तीनों की अपेक्षा अधिक - उच्च कोटि का समझा जाता है। क्योंकि मैं ज्ञानी का आत्मा हूँ इसलिए उसको अत्यंत प्रिय हूँ। संसार में यह प्रसिद्ध ही है कि आत्मा ही प्रिय होता है। इसलिए ज्ञानी का आत्मा होने के कारण भगवान् वासुदेव उसे अत्यंत प्रिय होते हैं। यह अभिप्राय है। तथा वह ज्ञानी भी मुझ वासुदेव का आत्मा ही है, अतः वह मेरा अत्यंत प्रिय है।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - १६ और १७)
आर्त कौन है ? वह, जिससे भगवान् के बिना एक क्षण भी रहा न जाए। जैसे गोपियाँ भगवद् वियोग में आर्त हो जाती थीं। आर्त लोग दुःखी होकर द्रौपदी की तरह रोते हैं। कुन्ती तो आर्त होने का वरदान ही मांगती हैं। मीरा भी आर्त की श्रेणी में है। आर्त वह हुआ जिसे जगत् से वैराग्य हो गया।
जिज्ञासु कौन है ? आर्त और अर्थार्थी के बीच में - गोपियाँ जो वन-वन में ढूंढती फिरीं कि हे वृक्ष बताओ, श्री कृष्ण कहाँ हैं ? हे पृथ्वी बताओ, श्री कृष्ण कहाँ हैं ? जिज्ञासु वह हुआ जिसने गुरु के पास जाकर जिज्ञासा की इस प्रश्न के साथ कि बताओ भगवान् कहाँ है ? क्या तुमने भगवान् को देखा है ? मुझे भगवान् को दिखा सकते हो ? स्वामी विवेकानंद जिज्ञासु हैं और श्री रामकृष्ण परमहंस गुरु हैं।
अर्थार्थी कौन है ? गोपियाँ - जिन्हें भगवान् श्री कृष्ण का दर्शन चाहिए। वे किसी से पूछती नहीं हैं कि भगवान् श्री कृष्ण कहाँ हैं ? वे तो दर्शन की अभिलाषी हैं। अर्थार्थी वह हुआ जिसके ह्रदय में यह भाव हुआ कि परमात्मा का साक्षात्कार होना चाहिए। अर्थार्थी ध्रुव की तरह कहते हैं कि हे प्रभु, मुझे दर्शन दे दो, मुझे ज्ञान दे दो। उद्धव ज्ञान माँगते हैं। यहाँ आप सब के मन में यह सवाल उठ रहा होगा कि अर्थ का अर्थ तो धन है ?! बिल्कुल धन है किन्तु, ज्ञान धन है। वह धन नहीं जिससे / जिसके लिए जड़ पदार्थ / वस्तुएँ खरीदी / बेची जाती हैं। कैसे ? अर्थार्थी सबसे पहले स्वामिनी लक्ष्मी द्वारा प्रदत्त धन को ठुकराता है। गौतम बुद्ध ने पहले राज-पाट त्यागा और ज्ञान की खोज में निकल गए। गुरु नानक देव ने तेरा, तेरा-
ज्ञानी कौन है ? ज्ञानी के सम्बन्ध में लोगों (अज्ञानियों) को भ्रम है कि ज्ञानी भक्त नहीं होता है। आदिशंकराचार्य के सम्बन्ध में भी स्वयं को कृष्ण का सबसे बड़ा भक्त घोषित करने वाले सम्प्रदाय द्वारा ऐसी ही भ्रांतियाँ फैलाई गई हैं। वास्तव में ज्ञानी को वियोग नहीं है क्योंकि परमात्मा का ज्ञान होते ही वियोग की संभावना ही मिट जाती है। जब तक ज्ञान नहीं होगा तब तक उल्टे भक्ति ही दिशा बदलती रहेगी। इसी से ज्ञानी की भक्ति विशिष्ट है। भगवान् कहते हैं कि मैं ज्ञानी का व्यवधान रहित प्रिय हूँ। मेरे और ज्ञानी के बीच में कोई दूसरी चीज नहीं है। फूल नहीं, माला नहीं, हड्डी, माँस, मज्जा, रक्त भी नहीं है। न भूख है और न प्यास है। अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय और आनन्दमय कोष भी नहीं है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश कुछ भी भगवान् और ज्ञानी के बीच में नहीं है यानी पंचकोष और पंचभूत भी भगवान् और ज्ञानी के बीच नहीं है। प्रहल्लाद ज्ञानी हैं !
भगवान् और ज्ञानी की प्रियता पीड़ा, जिज्ञासा और अर्थ व्यवधान रहित है। इसलिए वह अनन्य (न अन्य) प्रेमी (ज्ञानी भक्त) अन्य तीनों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। भगवान् कहते हैं कि मैं ज्ञानी का आत्मा हूँ तथा वह ज्ञानी भी मुझ वासुदेव का आत्मा ही है। अतः वह मेरा अत्यंत प्रिय है !!
भगवान् स्पष्ट कह रहे हैं कि यही चार प्रकार के पुण्यकर्मकारी मनुष्य मेरा भजन - सेवन करते हैं।
क्या आपने ऐसे किसी एक का भी दर्शन किया है ?!
जय श्री कृष्ण !!

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Seriously....

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Baktha kannappa
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